Monday 27 January, 2014

पेट कि आग
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पेट कि आग मे
इतना व्याकुल
हो जाता है इन्सान
कि अच्छे बुरे
के भेद से
हो जाता अन्जान

विवश्ता कि
परिधि मे जकड़े
जूठन मे खोजते है
खाने के लिये दाना
कुछ भी खाके
पेट को है
भर लेना

जो मिला
खा लिया हमने
कुछ भी खाकर
पेट भर लिया हमने

बड़ा कठिन है
गरीबी के इस
आलम मे
पेट कि आग
को शान्त करना
थोड़ा खाना
थोड़ा पानी पीकर
वक्त बिताते है
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गरिमा कान्सकार
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